जीवात्मा 6/16

 1. मैं अपने कर्मों के अनुसार देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियों में न जाने कितने जन्मों से भटक रहा हूं। उनमें से यह लोग इस जन्म में मेरे माता-पिता हुए?4

2. विभिन्न जन्मों में सभी एक दूसरे के भाई बंधु, नाती गोती, शत्रु मित्र,मध्यस्थ ,उदासीन औरद्वेषी होते रहते हैं।5

3. जैसे सुवर्ण आदि क्रय विक्रय की वस्तुएं एक व्यापारी से दूसरे व्यापारी के पास जाती आती रहती है, वैसे ही जीव भी भिन्न-भिन्न योनियों में उत्पन्न होता रहता है।6

4. इस प्रकार विचार करने से ही पता लगता है कि मनुष्य की अपेक्षा अधिक दिन ठहरने वाले स्वर्ण आदि पदार्थों का संबंध भी मनुष्य के साथ स्थाई नहीं, क्षणिक ही होता है; और जब तक जिसका जिस वस्तु से संबंध रहता है,तभी तक उसकी उस वस्तु से ममता भी रहती है।

5. जीव नित्य और अहंकार रहित है।वह गर्भ में आकर जब तक जिस शरीर में रहता है, तभी तक उस शरीर को अपना समझता है।

6. यह जीव नित्य, अविनाशी,सूक्ष्म (जन्म आदि रहित), सब का आश्रय और स्वयं प्रकाश है। इसमें स्वरूपत: जन्म मृत्यु आदि कुछ भी नहीं है। यह भी फिर भी यह ईश्वररूप होने के कारण अपनी माया के गुणों से ही अपने आप को विश्वके रूप में प्रकट कर देता है।

7. इसका ना तो कोई अत्यंत प्रिय है और न अप्रिय, न अपना और न पराया। क्योंकि गुण दोष (हित अहित) करने वाले मित्र शत्रु आदि की भिन्न-भिन्न बुद्धि वृत्तिया का यह अकेला ही साक्षी है; वास्तव में यह अद्वितीय हैं।

8. यह आत्मा कार्य कारण का साक्षी और स्वतंत्र है। इसलिए यह शरीर आदि के गुण दोष अथवा कर्म फल को ग्रहण नहीं करता, सदा उदासीन भाव से स्थित रहता है।

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