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15. मंत्रोपनिषद
तुम एकाग्र चित्र से मुझसे यह मंत्र उपनिषद ग्रहण करो इसे धारण करने से 7:00 रात में ही तुम्हें भगवान संकर्षण का दर्शन होगा।27 नरेंद्र प्राचीन काल में भगवान शंकर आदि ने श्री संकर्षण देव के ही चरण कमलों का आशय लिया था इससे उन्होंने जो एक भ्रम का परित्याग कर दिया और उनकी उस महिमा को प्राप्त हुए जिस से बढ़कर तो कोई है ही नहीं समान भी नहीं है तुम भी बहुत शीघ्र ही भगवान के उसी परम पद को प्राप्त कर लोगे।28
जीवात्मा 6/16
1. मैं अपने कर्मों के अनुसार देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियों में न जाने कितने जन्मों से भटक रहा हूं। उनमें से यह लोग इस जन्म में मेरे माता-पिता हुए?4 2. विभिन्न जन्मों में सभी एक दूसरे के भाई बंधु, नाती गोती, शत्रु मित्र,मध्यस्थ ,उदासीन औरद्वेषी होते रहते हैं।5 3. जैसे सुवर्ण आदि क्रय विक्रय की वस्तुएं एक व्यापारी से दूसरे व्यापारी के पास जाती आती रहती है, वैसे ही जीव भी भिन्न-भिन्न योनियों में उत्पन्न होता रहता है।6 4. इस प्रकार विचार करने से ही पता लगता है कि मनुष्य की अपेक्षा अधिक दिन ठहरने वाले स्वर्ण आदि पदार्थों का संबंध भी मनुष्य के साथ स्थाई नहीं, क्षणिक ही होता है; और जब तक जिसका जिस वस्तु से संबंध रहता है,तभी तक उसकी उस वस्तु से ममता भी रहती है। 5. जीव नित्य और अहंकार रहित है।वह गर्भ में आकर जब तक जिस शरीर में रहता है, तभी तक उस शरीर को अपना समझता है। 6. यह जीव नित्य, अविनाशी,सूक्ष्म (जन्म आदि रहित), सब का आश्रय और स्वयं प्रकाश है। इसमें स्वरूपत: जन्म मृत्यु आदि कुछ भी नहीं है। यह भी फिर भी यह ईश्वररूप होने के कारण अपनी माया के गुणों से ही अपने आप को विश्वके रूप में प्र
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